परिचय-
अक्सर रोगी सोचता है कि हम तो बहुत सावधानी-पूर्वक रहते हैं लेकिन फिर भी हमें रोग कैसे घेर लेता है। किसी भी व्यक्ति को अगर कोई रोग घेरता है तो उसका सबसे बड़ा कारण है उसके शरीर में जीवाणुओं का हमला। जीवाणु जो होते हैं वह सब जगह मौजूद होते हैं खासकर पेड़, पत्ते, लता आदि। ऐसी जगहों पर बहुत ध्यान से देखने से पतली काई की तरह एक परत दिखाई देती है। यह पूरी परत जीवाणुओं से भरी हुई होती है। यह सभी जीवाणु रोग फैलाने वाले नहीं होते हैं। इनमें से कुछ जीवाणु लाभकारी भी होते हैं ऐसे जीवाणुओं को मित्र जीवाणु कहा जाता है। इसके अलावा कुछ ऐसे जीवाणु भी हैं जो सांस, भोजन, पानी या औषधि द्वारा खून के साथ मिलकर स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में घुसकर व्यक्ति को रोगी बना दाता है।
इन जीवाणुओं से बचने के लिए 4 बातों की जानकारी जरूरी है- भोजन, हवा, अधिक मात्रा में तरी, हल्की गर्मी। इसके अलावा कुछ ऐसे जीवाणु भी हैं जो सिर्फ हवा में ही जीवित रहते हैं जैसे धनुष्टंकार पैदा करने वाले जीवाणु।
सावधानी-
कोई भी जीवाणु भोजन, तरी और हल्की गर्मी के बिना पनप नहीं सकते हैं। सूखी जगह या सूखी अवस्था में ज्यादातर जीवाणु पनप नहीं पाते और अपने आप ही समाप्त हो जाते हैं इसलिए अपना सोने का कमरा, रसोईघर, गोशाला, अस्तबल आदि को साफ-सुथरा रखना चाहिए।
जीवाणु शरीर में कैसे घुसते हैं?-
जीवाणु किसी भी व्यक्ति के शरीर में 3 तरह से प्रवेश कर सकते हैं- सांस लेने के साथ, भोजन के साथ और शरीर में किसी जगह पर कटने या छिलने के कारण खून के साथ।
जीवाणु किस प्रकार से हानिकारक होते हैं?-
कोई भी जीवाणु जैसे ही किसी व्यक्ति के शरीर में प्रवेश करता है वह उसी समय से अपना काम शुरू कर देता है अर्थात जीवाणुओं का शरीर में फैलाना। इसके साथ ही अपना मैल, मल-मूत्र, अपनी रक्षा के लिए अपने शरीर से निकला हुआ कोई जहरीला पदार्थ छोड़ना शुरू करते है। जीवाणुओं के द्वारा छोड़े गए पदार्थ मानव के शरीर में जहर का काम करते हैं इसलिए इसे `टॉक्सिन´ कहा जाता है। यह `टॉक्सिन´ ऐसी चीज होती है जिसमें खून को नष्ट करने की बहुत ताकत होती है और यही मनुष्य के शरीर के जीवन के सारे उपादानों का नाश कर देती है।
प्रतिकार-
हम लोग जिसे `खून´ कहते है, वह कोई मूल-पदार्थ नहीं है, बल्कि खून का एक भाग पानी जैसा तरल पदार्थ है उसका नाम `प्लाज्मा´ है। इस प्लाज्मा के अन्दर बहुत ज्यादा मात्रा में सफेद और लाल-कण मौजूद रहते हैं। यह सफेद कण व्यक्ति के शरीर के अन्दर की अच्छी तरह सफाई करते हैं। शरीर में किसी जीवाणु के घुसते ही वहां बड़ी तेजी से थोड़ा सा ज्यादा खून आकर जमा हो जाता है। इस खून के साथ ज्यादा मात्रा में सफेद कण भी उस जगह पर आ पहुंचते हैं। खून के यह सफेद कण भी उस जगह पर जहां जीवाणु है वहां आकर जीवाणुओं के बढ़ने में रुकावट पहुंचाते हैं और ज्यादा से ज्यादा जीवाणुओं को समाप्त करने की कोशिश करते हैं। यह सफेद कण अगर जीवाणुओं को पूरी तरह समाप्त करने में सफल होते हैं तो शरीर की सूजन कम हो जाती है लेकिन इसके विपरीत अगर जीवाणु बहुत ज्यादा मात्रा में होते हैं या उनके द्वारा छोड़ा गया टॉक्सिन बहुत तेज होता है तो उन जीवाणुओं से लड़ाई में बहुत से सफेद कण समाप्त हो जाते हैं। इन भरी हुई सफेद कणिकाओं का ढेर ही `पीब´ (पस) कहलाता है। इन सफेद कणों को हटाने से पहले शरीर में घुसा हुआ जीवाणु (अर्थात जिस रोग का जीवाणु शरीर में प्रवेश करता है, उसी जाति के जीवाणु) से पैदा हुआ वैक्सीन या प्रतिविष शरीर के सफेद कणों को उत्तेजित और जबर्दस्त बनाता है और फिर तेज टाक्सिन के प्रभाव से सारे सफेद कण निर्जीव हो जाते हैं।
हमारे खून में एक खास तरह की ताकत होती है जैसे अगर कोई जहर थोड़ा-थोड़ा करके शरीर में घुसता है तो खून उस जहर का `प्रतिविष´ तैयार कर सकता है। सारे जीवाणु व्यक्ति के शरीर में घुसने के बाद अपने शरीर से जो `टॉक्सिन´ निकालते हैं वही `टॉक्सिन´ नाश करने वाला प्रतिविष या एक विषघ्न-पदार्थ साथ-साथ खून के बहाव में प्रतिविष पैदा कर देते हैं और इसी के फल-स्वरूप `टॉक्सिन´ की क्रिया में रुकावट पहुंचाते हैं। जब जीवाणु किसी स्वस्थ व्यक्ति के शरीर में `टॉक्सिन´ छोड़ना शुरू करते हैं तो उसी समय खून से पैदा हुई एक जहर को समाप्त करने वाली चीज तैयार होना शुरू हो जाती है। इस तरह के प्रतिविष का काम यह होता है कि जिस जीवाणु जिस जाति के `टॉक्सिन´ को तैयार करते हैं ठीक उसी जाति का `टॉक्सिन´ नष्ट करने की ताकत इस प्रतिविष में मौजूद रहती है। अगर खून में यह प्रतिविष पैदा करने की ताकत कम हो जाती है तो उसे बढ़ाने के लिए चिकित्सा जगत में ऐण्टि-टॉक्सिन´ इंजैक्शन अर्थात `रक्तांबू चिकित्सा-प्रणाली तैयार की गई है।
`ऐण्टि-टॉक्सिन सीरम´ दूसरी प्रणाली के शरीर के बड़े यन्त्र से निकाला हुआ प्रतिविष मात्र है। यह खास तरह के जीवाणु में पैदा जहर को रोकता है इसलिए इसके `इंजैक्शन´ का उपयोग `टॉक्सिन´ को रोकने के लिए प्रतिविष को खून में फैला देता है। यह `रक्तांबू चिकित्सा-प्रणाली हमारे होम्योपैथी चिकित्सा में काफी समय से आइसोपैथी नाम से चल रही है। ईसा के लगभग 400 साल पहले जेनोक्रेटिस द्वारा इस तरह का इलाज चलाया गया है। इसके बाद एक मशूहर चिकित्सक ने पहली बार इसे होम्योपैथी में चलाया।