परिचय-
यह रोग उन व्यक्तियों को होता है जो अधिकतर किसी तरह का व्यवसाय करते हैं तथा हर समय अपने व्यवसाय में आवश्यकता से अधिक व्यस्त रहते हैं। जो व्यक्ति शारीरिक तथा मानसिक रूप से परेशान रहते हैं उन व्यक्तियों को भी हृदय के कई प्रकार के रोग हो सकते हैं। वैसे देखा जाए तो राजनीतिज्ञ, डॉक्टर, अधिवक्ता तथा सिने-कलाकर इस रोग से ज्यादा प्रभावित होते हैं।
हृदय से संबन्धित अनेक रोग हो सकते हैं-
दिल का दौरा पड़ना:-
हृदय की धमनी की अन्दरुनी सतह के नीचे वसा (चिकनाई) जमने से अवरोध (रुकावट) उत्पन्न होता है तो इसकी सतह पर धीरे-धीरे खिंचाव पड़ता है और एक दिन यह सतह फट जाती है। सतह के फटने के साथ ही कुछ रसायनिक क्रियाओं के कारण वहां रक्त का थक्का जम जाता है और यह अवरोध 100 प्रतिशत में परिवर्तित हो जाता है। जमा हुआ थक्का हृदय के लिए बहुत ज्यादा खतरनाक होता है क्योंकि जब यह हृदय के किसी भाग में जम जाता है तो यह उस भाग को नष्ट कर देता है और रोग उत्पन्न कर देता है।
अल्पकालिक हृदय-शूल (कुछ समय के लिए हृदय में दर्द होना)-
जब हृदय की धमनी के अन्दर की सतह पर (इंटरनल लाईनिंग इनटाइमा) के नीचे वसा के जमने के साथ 71 प्रतिशत या उससे से अधिक अवरोध उत्पन्न होता है तो यह रोग व्यक्ति को हो जाता है। यह इसलिए होता है क्योंकि हृदय के अन्दर रक्त और ऑक्सीजन सही तरह से पहुंच नहीं पाता है। इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को 3-4 मिनट तक हृदय में दर्द होता रहता है। जब यह दर्द रोगी व्यक्ति को होता है तो उसे चलने या झुकने में बहुत अधिक परेशानी होती है। जब व्यक्ति थोड़ी देर आराम कर लेता है तो उस समय उसका दर्द ठीक हो जाता है।
ह्रत्कम्प (पेलीपिएशन ऑफ हॉर्ट):-
जब किसी व्यक्ति को ह्रत्कम्प का रोग हो जाता है तो उसकी दिल की धड़कन तेजी से चलने लगती हैं। यह रोग पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक होता है। इस रोग के होने का सबसे प्रमुख कारण हृदय की मांसपेशियों और स्नायुओं में कमजोरी आ जाना है। इस रोग के कारण रोगी के हाथ-पैर ठंडे पड़ जाते हैं।
रक्त नलिकाओं का कड़ा पड़ जाना-
यह रोग एक प्रकार की धमनी की दीवारों का रोग है जो पहले मध्य और बाद में अन्दरूनी सतह को रोगग्रस्त कर देता है। इस रोग के कारण धमनी की दीवारों के लचीलेपन में कमी आ जाती है। जब यह रोग किसी कम उम्र या बड़े उम्र के व्यक्ति को होता है तो यह उसके लिए और भी खतरनाक हो जाता है। इस रोग के कारण कोरोनरी धमनियों को नुकसान पहुंचता है तथा यह रोग शरीर के किसी भी भाग को नष्ट कर सकता है।
हृदयकपाट संबन्धी रोग-
हृदयकपाट संबन्धी रोग के कारण हृदय का माईट्रल वाल्व अधिक प्रभावित होता है। जिससे हृदय के अन्दर छिद्र (मिटरल स्टेनोसिस) तथा सिकुड़न (इंकोमपेटेन्स) दोनों ही एक साथ हो जाते हैं। इस रोग के कारण हृदय का और्टिक कपाट भी प्रभावित होता है जिसके कारण से इसमें छिद्र (मिटरल स्टेनोसिस) तथा सिकुड़न (इंकोमपेटेन्स) हो जाता है।
हृदय का आकार में बड़ा होना:-
जब शरीर के अन्दर दूषित द्रव की मात्रा अधिक हो जाती है तो हृदय पर बहुत अधिक दबाव पड़ता है जिसके कारण हृदय का आकार बढ़ जाता है। इस रोग के होने के और भी कारण हैं जैसे- दिल के कपाट कमजोर हो जाना, उच्च रक्तचाप होना, मधुमेह रोग होना तथा दिल की धमनियों में रुकावट हो जाना।
परिहार्दिक सूजन-
इस रोग के कारण हृदय की झिल्ली में सूजन हो जाती है जिसके कारण रोगी व्यक्ति के हृदय में हल्का-हल्का दर्द होने लगता है तथा उसकी नाड़ी तेज गति से चलने लगती है। कभी-कभी तो इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को बुखार भी हो जाता है और कभी झिल्ली में पानी भर जाता है। झिल्ली में पानी भरने के कारण हृदय में सूजन हो जाती है जिसके कारण रोगी व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी होने लगती है।
मध्यहार्दिक सूजन-
मध्यहार्दिक सूजन रोग के कारण हृदय की मांसपेशियों में सूजन आ जाती है। हृदय में यह सूजन मधुमेह तथा निमोनिया रोग हो जाने के कारण होती है।
अर्न्तहार्दिक सूजन (ऐडोकेरडिटिस):-
अर्न्तहार्दिक सूजन (ऐडोकेरडिटिस) रोग के कारण हृदय के अन्दरूनी भाग में सूजन आ जाती है।
धमनियों का फटना:-
इस रोग के कारण हृदय की धमनियों की दीवारें बहुत अधिक कमजोर हो जाती हैं जिसके कारण से ये गुब्बारे की तरह फट जाती हैं। इस रोग से पीड़ित अधिकतर व्यक्तियों की मृत्यु हो जाती है या इस रोग से पीड़ित बहुत कम रोगी ही बच पाते हैं।
हृदय की मांसपेशियों का फैल जाना-
इस रोग के होने का सबसे प्रमुख कारण हृदय की मांसपेशियों का अधिक काम करना है जिसके कारण मांसपेशियां फैल जाती हैं और यह रोग व्यक्ति को हो जाता है। इस रोग के होने का सबसे प्रमुख कारण उच्च रक्तचाप (हाई ब्लडप्रेशर) रोग है।
हृदय स्पंद वेगवर्धन-
इस रोग से पीड़ित रोगी की नाड़ी की गति तेज हो जाती है। इस रोग का दौरा पड़ता है और जब यह दौरा पड़ता है तो यह लगभग 8 दिन तक रहता है। इस रोग के कारण नाड़ी की गति का आवेग तेज हो जाता है।
मंद हृदय स्पंद-
वैसे देखा जाए तो सभी व्यक्तियों में नाड़ी की गति 60 से 100 स्पंद तक होती है और जब यह गति इससे कम हो जाती है तो नाड़ी गति मंद हो जाती है। यदि नाड़ी की गति 50 स्पंद से कम हो जाती है तो यह खतरनाक हो सकता है और रोगी व्यक्ति के शरीर में कई प्रकार के रोग उत्पन्न हो सकते हैं।
रक्तगांठ बनना-
इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति की रक्त धमनियों में कैल्शियम, कोलेस्ट्रोल तथा वसा की परतें जमने लगती हैं। यदि कैल्शियम, कोलेस्ट्रोल तथा वसा रक्त धमनियों में जम जाये तो पैरालिसिस (लकवा) हो जाता है और यदि कैल्शियम, कोलेस्ट्रोल तथा वसा हृदय की रक्तधमनियों में जम जाये तो उसे हृदयरोग हो जाता है।
आमवातिक हृदय रोग-
यह हड्डी की जोड़ों में बुखार होने के कारण से होता है। इस रोग से हड्डी के जोड़ तथा हृदय के वाल्व अधिक प्रभावित होते हैं जिसके कारण हृदय के वाल्व में खराबी आ जाती है। वैसे तो यह रोग किसी भी उम्र के व्यक्ति को हो सकता है लेकिन यह 5-15 वर्ष की उम्र के व्यक्तियों को अधिक होता है।
हृदयपेशी की चर्बी अपविकास:-
इस रोग के कारण हृदय की पेशियों में चर्बी अधिक मात्रा में जम जाती है। जिसके कारण से हृदयपेशी कोशिका नष्ट होने लगती है और उनके स्थान पर चर्बी जमने लगती है। इस रोग के कारण अधिक चर्बी युक्त पेशियां कड़ी हो जाती हैं और वह पूर्ण रूप से सिकुड़ नहीं पाती है। इस रोग के कारण हृदय की कपाटिकाएं भी कड़ी तथा मोटी हो जाती हैं। इस रोग के हो जाने के कारण हृदय का आकार बड़ा हो जाता है।
हृदयताल विकार (हृदयताल के रोग):-
इस रोग के कारण हृदय का स्पंद तालयुक्त (हृदय की धड़कन एक सामान) नहीं हो पाती है। यह रोग अनेकों प्रकार के हृदय रोगों के हो जाने के कारण से होता है।
रक्तचाप से संबन्धित रोग:-
- रक्त (खून) हमारे शरीर में धमनियों के द्वारा लगातार पहुंचकर उसे पोषण देता रहता है। जब रक्त धमनियों में आगे की ओर बढ़ता है तो उस क्रिया को रक्तचाप, खून का दबाव या रक्तभार कहते हैं तथा अंग्रेजी में इसे ब्लडप्रेशर कहते हैं। यह एक प्रकार की स्वाभाविक क्रिया है जिसके कारण ही मनुष्य जीवित रहता है यदि यह क्रिया चलनी बंद हो जाए तो मनुष्य की मृत्यु हो सकती है। जब तक शरीर की धमनियों और नलिकाओं की दशा स्वाभाविक रहती है तब तक वे लचीली रहती हैं और छिद्र पूरे खुले रहते हैं और तब तक रक्त को आगे बढ़ने के लिए हृदय पर आवश्यकता से अधिक दबाव डालने की आवश्यकता नहीं पड़ती है। रक्त अपने स्वाभाविक रूप में हृदय से निकलकर धमनियों और रक्त नलिकाओं द्वारा शरीर के प्रत्येक भाग में जाता है।
- रक्तकोशिकाएं हृदय की वह शक्ति होती है जो शरीर के रक्त को शरीर के समस्त भागों में संचालित करती हैं तभी शरीर के सभी भागों का सही तरीके से विकास हो पाता है। यदि किसी प्रकार से हृदय में कोई बीमारी हो जाती है तो रक्त का शरीर के सभी भागों में पहुंच पाना संभव नहीं हो पाता है और शरीर में कई प्रकार के रोग हो जाते हैं।
- रक्तचाप से सम्बंधित सभी कार्य मस्तिष्क में स्थित स्नायुकेन्द्र के नियंत्रण में होते हैं। यदि मस्तिष्क में स्नायु से संबन्धित कोई रोग हो जाता है तो शरीर का रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है और रक्तचाप से संबन्धित रोग मनुष्य को हो जाते हैं। जब तक शरीर का रक्तचाप सामान्य रहता है तब तक मनुष्य का शरीर स्वस्थ रहता है लेकिन जैसे ही मनुष्य के रक्तचाप में परिवर्तन होता है अर्थात रक्तचाप का बढ़ जाना, रक्तचाप का सामान्य से नीचे हो जाना आदि तब मनुष्य के शरीर में कोई न कोई रोग उत्पन्न हो जाता है और मनुष्य का स्वास्थ्य बिगड़ने लगता है।
- यदि किसी कारण से रक्त द्वारा लाए गए विष, लवण, अनावश्यक जल तथा दूषित पदार्थों को छानकर गुर्दों की धमनियों में अपकर्ष आने के कारण या फिर किसी और कारण से इसका छनना बंद हो जाता है तो रक्त के संचालन में बाधा उत्पन्न हो जाती है और पीड़ित व्यक्ति का रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
रक्तचाप निम्नलिखित परिस्थितियों में भी स्वाभाविक रूप से बढ़ सकता है-
- यदि किसी व्यक्ति को अधिक घबराहट होती है या उसे डर लगता है तो उसका रक्तचाप सामान्य नहीं रह पाता है।
- भोजन खाने के बाद दोपहर के समय में सभी व्यक्तियों का रक्तचाप सामान्य नहीं रह पाता है।
- जब किसी व्यक्ति के मन में किसी प्रकार से जोश या उमंग पैदा होती है तो उसका रक्तचाप सामान्य नहीं रह पाता है।
- व्यायाम न करने की स्थिति में भी रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
- किसी दिलचस्प दृश्यों को देखने की स्थिति में भी रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
- सुरीली तथा जोशीली आवाज सुनने पर भी रक्तचाप सामान्य नहीं रह पाता है।
- जब किसी प्रकार की खुशी महसूस होती है तो भी रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
- गहरी सांस के व्यायाम करने की स्थिति में भी रक्तचाप सामान्य नहीं रह पाता है।
- संभोगक्रिया करने के दौरान रक्तचाप सामान्य नहीं रह पाता है।
- मानसिक रूप से परेशान रहने पर रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
- उत्तेजक पुस्तकें पढ़ने के समय तथा उत्तेजक दृश्य आदि देखने की स्थिति में रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
- ठंडे तथा गर्म जल से स्नान करने की स्थिति में भी रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
- खड़े रहने, बैठने तथा लेटने की स्थिति में भी रक्तचाप सामान्य नहीं रहता है।
शरीर में रक्तचाप कितना होना चाहिए कितना नहीं-
मनुष्य के शरीर में रक्तचाप कितना होना चाहिए, यह जानना आसान नहीं है क्योंकि अवस्था और शारीरिक स्थिति के अनुसार मनुष्यों में रक्तचाप का असामान रहना स्वाभाविक हो जाता है। एक स्वस्थ नवजात शिशु का रक्तचाप 55 से 40 सिस्टोलिक रहता है जबकि एक स्वस्थ युवक या बूढ़े व्यक्ति का रक्तचाप 100 से 125 सिस्टोलिक तक होता है जैसे-जैसे मनुष्य की अवस्था बढ़ती जाती है तथा उसके शरीर की धमनियों का लचीलापन कम होता जाता है, उतना ही हृदय को कार्य करना पड़ता है जिसके परिणाम स्वरूप उसके रक्तचाप का बढ़ जाना स्वाभाविक है जो आमतौर से 125 से 140 सिस्टोलिक तक होता है-चाहे उस व्यक्ति की आयु कुछ भी हो। उस समय उसका डायास्टोनिक प्रेशर केवल 85 से 100 के बीच में होना चाहिए। शाकाहारी भोज्य पदार्थों का सेवन करने वालों का रक्तचाप मांसाहारी भोज्य पदार्थों का सेवन करने वालों की अपेक्षा कम होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि शाकाहारियों की रक्त प्रणालियां अपना प्राकृतिक संतुलन बनाए रखती हैं और साथ ही उनके अंतर का स्थान बना रहता है, जिसके फलस्वरूप हृदय धमनियों में रक्त गुजरने पर उनकी दीवारों पर दबाव नहीं पड़ता है।
125 मिलीमीटर रक्तचाप एक वयस्क व्यक्ति के पूर्ण स्वस्थ होने का परिचालक है तथा इससे 5 या 10 मिलीमीटर कम या अधिक रक्तचाप होने से कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता है।
विभिन्न आयु के व्यक्तियों में रक्तचाप की मात्रा:-
आयु
|
साधारण सिस्टोलिक प्रैशर
|
100+ आयु के ½ (आधा वर्ष)
|
80
|
140
|
140
|
75
|
136
|
137
|
70
|
132
|
135
|
65
|
128
|
132
|
60
|
125
|
130
|
55
|
122
|
127
|
50
|
120
|
127
|
45
|
118
|
122
|
40
|
116
|
120
|
35
|
114
|
117
|
30
|
113
|
115
|
25
|
112
|
112
|
25
|
110
|
110
|
नोट:-
विभिन्न व्यक्तियों की आयु के अनुसार रक्तचाप की मात्रा अलग-अलग हो सकती है क्योंकि सभी व्यक्तियों के शरीर का वजन, शरीर की बनावट तथा शरीर का स्वास्थ्य अलग-अलग होता है। शरीर की रक्तचाप की मात्रा का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए रक्तचाप मापक यंत्र की आवश्यकता होती है। इस मापक यंत्र को व्यक्ति की बायीं भुजा की धमनी से संलग्न करके सरलतापूर्वक सही-सही रक्तचाप जान सकते हैं। इस कार्य हेतु मनुष्य की बायीं भुजा की धमनी को ही क्यों चुना गया है, इसका कारण यह है कि मनुष्य के शरीर के सभी भागों में रक्तचाप का रूप एक जैसा नहीं होता है, लेकिन हृदयांग की दूरी के अनुसार उसमें भिन्नता होगी। इसलिए रक्तचाप का सही ज्ञान प्राप्त करने के लिए हृदय के पास के अंग अर्थात बायीं भुजा के सामने की धमनी की जांच करना ही ठीक माना जाता है तथा यह क्षेत्र रक्तचाप मापने के लिए सुविधाजनक होता है। यह स्थान हृदय के पास होने के कारण यहां रक्त का दबाव शरीर की अन्य जगहों से अधिक रहता है।
रक्तमापक यंत्र की बनावट तथा कार्य:-
रक्तमापक यंत्र में रबड़ की एक खाली पट्टी होती है, इस खाली पट्टी में पारा भरा रहता है। जब कोई व्यक्ति या चिकित्सक रक्तमापक यंत्र को रोगी की बायीं भुजा में, कोहनी और कंधे के बीच के भाग में बांध देता है और साथ ही स्टेथोस्कोप को कानों में लगाकर उसकी टिकरी को भुजा की धमनी पर सामने की ओर रखकर दबाए रखता है। इसके बाद एक संलग्न रबड़ के पम्प से खाली पट्टी में इतनी हवा भरता है कि उससे धमनी में रक्त प्रवाह रुक जाता है और नाड़ी का शब्द सुनाई नही देता है। इसके बाद वह पट्टी में से हवा धीरे-धीरे निकल जाने देता है। साथ ही रक्तमापक यंत्र की पटरी (जिस पर 10 से 300 मिलीमीटर तक के अंक लिखे रहते है) उस पर नज़र रखता है और देखता है कि किस अंक पर पारा पंहुचने पर सर्वप्रथम धमनी में संकोचक ध्वनि फिर से सुनाई देने लगता है, उसी अंक को सिस्टोलिक प्रेशर यानि संकोचिक रक्तचाप कहते हैं। चिकित्सक या व्यक्ति पट्टी में से हवा को निकालना जारी रखता है तथा यंत्र की अंकों वाली पटरी पर नज़र जमाकर यह देखता रहता है कि किस अंक पर पारा पहुचने पर प्रत्येक प्रकार का शब्द नहीं सुनाई देता है, उसी अंक को डायस्टोलिक प्रेशर कहा जाता है। डायस्टोलिक तथा सिस्टोलिक प्रेशर के अंतर को पल्सप्रेशर या डिफरेन्शल प्रेशर कहते हैं उदाहरण के लिए- यदि किसी व्यक्ति का रक्तचाप 120 है और डायस्टोलिक चाप 80 हो तो डॉक्टरी भाषा में उस व्यक्ति का रक्तचाप 120/80 लिखा या कहा जाएगा और इसे सिस्टोलिक चाप 120 डायस्टोलिक चाप 80-40 पल्स प्रेशर या डिफरेन्शल प्रेशर कहते हैं।
रक्तचाप के निम्नलिखित अंक हाई सिसटोलिक प्रेशर कहलाते हैं-
सिस्टोलिक
|
डायस्टोलिक
|
उम्र तथा अवस्था
|
50
|
180
|
120
|
40
|
150
|
100
|
रक्तचाप से संबन्धित दो रोग होते हैं-
उच्च रक्तचाप:-
जब शरीर की नलिकाओं के छिद्र विभिन्न कारणों से पतले तथा संकरे पड़ जाते हैं या उनकी दीवारें स्थूल हो जाती हैं और उनका लचीलापन नष्ट हो जाता है तथा उनमें कठोरता आ जाती है तब रक्त के समुचित संचालन के लिए हृदय को अस्वाभाविक रूप से आवश्यकता से अधिक दबाव डालकर उनके संकरे छिद्रों वाली धमनी एवं रक्तवाहिनी नलिकाओं को रक्त ढकेलना पड़ता है। शरीर की इसी अवस्था को उच्च रक्तचाप कहते हैं। वैसे यह कोई रोग नहीं है और न ही इसका कोई एक लक्षण है जो यह सूचित करता है कि शरीर के अन्दर रक्त के प्रवाह में असाधारण प्रतिरोध प्रस्तुत हो रहा है। यह प्रतिरोध कभी अचानक नहीं होता है और न ही धीरे-धीरे उत्पन्न होता है। उच्च रक्तचाप स्थायी हो सकता है और इसके दौरे पड़ सकते हैं और यह किसी भयानक रोग का रूप भी धारण कर सकता है जिसके कारण रोगी व्यक्ति की मृत्यु भी हो सकती है।
उच्च रक्तचाप दो प्रकार का होता है-
- घातक उच्च रक्तचाप (मेलिग नेण्ट):- जब लगातार रक्तचाप बढ़ने लगता है तो कभी-कभी यह इतना अधिक बढ़ जाता है कि रोगी को बहुत अधिक परेशानी होने लगती है और उसका रक्तचाप सामान्य रक्तचाप से बहुत ज्यादा बढ़ जाता है जिसके कारण कई व्यक्तियों कि मृत्यु भी हो जाती है। इस रोग से पीड़ित रोगी बहुत जल्दी ही उत्तेजना में आ जाते हैं और क्रोध करने लगते हैं।
- अघातक उच्च रक्तचाप (बेनाइन):- अघातक उच्च रक्तचाप (बेनाइन) रोग से ग्रस्त रोगी व्यक्ति कई वर्षों तक जीवित रह सकता है।
उच्च रक्तचाप के लक्षण:-
- इस रोग से पीड़ित रोगी को चक्कर आने लगते हैं तथा उसके सिर में दर्द होने लगता है।
- रोगी व्यक्ति को किसी भी कार्य करने को मन नहीं करता है।
- रोगी को सांस लेने में परेशानी होने लगती है तथा उसे नींद भी नहीं आती है।
- इस रोग से पीड़ित रोगी की पाचनशक्ति कम हो जाती है तथा उसका खाया-पिया उसके शरीर में नहीं लगता है।
- इस रोग से ग्रस्त रोगी का स्वभाव चिड़चिड़ा हो जाता है तथा रोगी व्यक्ति को नाक से कभी-कभी खून भी निकलने लगता है।
- इस रोग में रोगी की छाती में कभी-कभी दर्द होने लगता है तथा रोगी जरा-सी मेहनत करने से हांफने लगता है।
- इस रोग से पीड़ित रोगी अधिकतर किसी न किसी हृदय रोग से पीड़ित होते हैं तथा उन्हें शरीर में सुस्ती, कमजोरी, झुनझुनी तथा कंपकंपी होने लगती है।
उच्च रक्तचाप होने का कारण:-
- किसी व्यक्ति को अप्राकृतिक जीवनयापन करने तथा गलत तरीके से खान-पान के कारण उच्च रक्तचाप का रोग हो जाता है।
- शरीर में दूषित मल जमा हो जाने के कारण व्यक्ति को उच्च रक्तचाप का रोग हो जाता है।
- भोजन में श्वेतसार पदार्थों जैसे- चीनी, तेल, खटाई, चावल, मसाले, तली-भुनी चीजें, अण्डा, मांस-मछली, रबड़ी, मलाई, चाय, कॉफी, नशीली चीजें तथा अधिक दाल आदि का उपयोग करने से उच्च रक्तचाप का रोग हो जाता है।
- दिन के समय में कई बार भोजन करने से भी यह रोग हो सकता है।
- भूख से अधिक भोजन करने के कारण उच्च रक्तचाप का रोग हो जाता है।
- असंयमी जीवन जीने के कारण भी उच्च रक्तचाप का रोग सकता है।
- अधिक आराम करने के कारण भी उच्च रक्तचाप का रोग हो सकता है।
- विषैली औषधियों का प्रयोग करने के कारण भी उच्च रक्तचाप का रोग हो सकता है।
- अधिक चिंता, क्रोध तथा मानसिक कारणों से उच्च रक्तचाप का रोग हो सकता है।
- मूत्राशय के रोग, जहरीले कीड़े के काटने, पुराना आंव रोग, कब्ज तथा मस्तिष्क के रोग आदि के कारण उच्च रक्तचाप का रोग हो सकता है।
निम्न रक्तचाप (लो ब्लड प्रेशर):-
निम्न रक्तचाप रोग को लो ब्लड प्रेशर के नाम से जाना जाता है। यह उच्च रक्तचाप से हानिकारक नहीं होता है। इस रोग का संबन्ध भी उच्च रक्तचाप की तरह हृदय और रक्त नलिकाओं से होता है जो धमनी, कोशिका और शिराओं में विभक्त होती है। इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति का रक्तचाप सामान्य रक्तचाप से कम हो जाता है। उदाहरण के लिए- यदि किसी व्यक्ति का रक्तचाप 120 हो तो उसका साधारण रक्तचाप 120 से 130 तक हो सकता है और उसका रक्तचाप 120 से कम होने पर उसका रक्तचाप निम्न माना जा सकता है।
निम्न रक्तचाप होने पर लक्षण:-
- इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति के शरीर का वजन दिन-प्रतिदिन कम होने लगता है।
- रोगी व्यक्ति का शरीर सुस्त-सुस्त तथा ठंडा पड़ जाता है।
- इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति को बेचैनी होने लगती है तथा उसको किसी भी कार्य करने का मन नहीं करता है।
निम्न रक्तचाप होने का कारण:-
- किसी रोग के कारण जब शरीर से बहुत अधिक मात्रा में खून निकल जाता है तो निम्न रक्तचाप का रोग हो जाता है।
- अधिक देर तक आराम करने के कारण भी निम्न रक्तचाप का रोग हो सकता है।
- व्यायाम की कमी के कारण भी निम्न रक्तचाप हो जाता है।
- दस्त, आंव तथा अन्य रोगों के कारण व्यक्ति को निम्न रक्तचाप का रोग हो जाता है।
- शरीर में पानी की कमी हो जाने के कारण भी निम्न रक्तचाप का रोग हो जाता है।
हृदय से संबन्धित रोग होने पर लक्षण:-
- जब हृदय से संबन्धित कोई रोग किसी व्यक्ति को हो जाता है तो उस व्यक्ति को पसीना बहुत अधिक निकलता है तथा धड़कन ज्यादा तेज महसूस होती है तथा उसकी छाती में भारीपन हो जाता है।
- रोगी व्यक्ति जब कोई कार्य करता है तो उसकी सांस फूलने लगती है तथा उसे सांस लेने में परेशानी होने लगती है।
- रोगी व्यक्ति को घुटन, जी मिचलाना, उल्टी होना, सिर में चक्कर आना आदि समस्याएं पैदा हो जाती हैं।
- इस रोग के कारण रोगी व्यक्ति कभी-कभी बेहोश भी हो जाता है।
- इस रोग से पीड़ित रोगी के पेट में कभी-कभी जलन भी होने लगती है तथा उसके हाथ-पैर ठंडे पड़ जाते हैं।
- इस रोग से पीड़ित रोगी यदि सीढ़ियों पर चढ़ता है तो उसकी सांस फूलने लगती है और उसे चक्कर आने लगते हैं तथा थोड़ी देर में वह सामान्य हो जाता है।
- इस रोग से पीड़ित रोगी में कभी-कभी ऐसा भी होता है कि उसका हृदय तो रोगग्रस्त होता है लेकिन उसके शरीर में रोग के लक्षण दिखाई नहीं पड़ते हैं।
- यदि किसी व्यक्ति को दिल की बीमारी है तो उसे सांस लेने में परेशानी होने लगती है लेकिन वह रोगी दमा रोग से पीड़ित नहीं होता है।
- यदि रोगी व्यक्ति को हृदयघात की बीमारी है तो उसकी छाती में दर्द होता है तथा दर्द छाती के बीच में होता है तथा यह दर्द इतना तेज होता है कि इस दर्द का असर बाईं बांह में फैलते हुए गर्दन के बीच तक होता है। इस दर्द का असर कई बार दाएं कंधे तथा नीचे के जबड़े की ओर भी जाता है। इस रोग से पीड़ित रोगी जब चलने-फिरने का कार्य करता है तो उसका दर्द और भी तेज हो जाता है। इस रोग के कारण दर्द कम से कम 5-10 मिनट से ज्यादा होता है और कभी-कभी घण्टों तक भी रहता है।
हार्ट अटैक होने के निश्चय की जांच:-
इलेक्ट्रो कार्डियोग्राम (ई.सी.जी.):- हार्ट अटैक से पीड़ित रोगी के ई.सी.जी. में बहुत स्पष्ट परिवर्तन दिखाई देने लगते हैं तथा एस.टी. सेग्मेंट उठी हुई होती है जिससे हार्ट अटैक का पता चलता है।
रक्त एन्जाईम जांच:- हार्ट अटैक आने के बाद रोगी व्यक्ति की कुछ मांसपेशियां नष्ट हो जाती हैं जहां से रक्त के कुछ एन्जाइम बाहर आ जाते हैं। किसी प्रकार से रक्त का एन्जाइम बढ़ जाता है तो यह हार्ट अटैक की स्थिति को दर्शाता है। इसमें से कुछ एन्जाइमों को सी.पी.के., सी.पी.के.एम.बी., एल.डी.एच, एस.जी.पी.टी. एस.सी.ओ.टी. हैं।
हृदय रोग को जांचने के लिए परीक्षण:-
रक्त की जांच:- इस जांच के द्वारा सीरम लिपिड़ प्रोफाइल और रक्त में शुगर (चीनी) की दर का पता चलता है।
शारीरिक जांच:- इस जांच में रक्तचाप और हृदयगति का पता चलता है।
ई. सी. जी. (इलेक्ट्रो कार्डियोंग्राम):- इस जांच के द्वारा हृदय रोग का पता लगाया जाता है।
ईको कार्डियोग्राम:- इस जांच के द्वारा हृदय के धड़कने की क्षमता तथा दिल के वाल्व की क्षमता का पता लगाया जाता है।
टी. एम. टी. (ट्रेड मिल टस्ट):- इस जांच को तब किया जाता है तब ई. सी. जी. की जांच कराने से परिणाम का पता नहीं चलता है।
एंजियोग्राफी:- इस जांच के द्वारा धमनी की अवरोध क्षमता का पता लगाया जाता है।
हृदय रोगों के होने का कारण:-
- जब किसी व्यक्ति के शरीर के खून में कोलेस्ट्रोल, ट्राईग्लिसराईड की मात्रा अधिक हो जाती है तो उसे कई प्रकार के हृदय रोग हो जाते हैं।
- धूम्रपान तथा तम्बाकू का सेवन करने के कारण भी हृदय के कई प्रकार के रोग हो सकते हैं।
- गलत तरीके के खान-पान, मांस, अण्डा, मैदा, चीनी, नमक, चिकनाईयुक्त चीजों तथा तली भुनी चीजों का अधिक सेवन करने के कारण भी हृदय से संबन्धित कई प्रकार के रोग हो जाते हैं।
- अधिक नशीली चीजों तथा दवाइयों का सेवन करने के कारण हृदय से संबन्धित रोग हो सकते हैं।
- अधिक मानसिक परेशानी, तनाव, क्रोध, ठीक प्रकार से नींद न लेने के कारण हृदय से संबन्धित रोग हो जाते हैं।
- फास्ट-फूड का अधिक सेवन करने के कारण भी हृदय से संबन्धित रोग हो जाते हैं।
- अधिक संभोगक्रिया करने के कारण भी हृदय से संबन्धित रोग हो सकते हैं।
- उच्च रक्तचाप, मोटापा, गठिया, ज्वर, सूजाक, मधुमेह आदि रोगों के कारण भी हृदय से संबन्धित रोग हो जाते हैं।
- छाती का भाग अधिक बढ़ जाने के कारण भी हृदय से संबन्धित रोग हो जाते हैं।
- अनुवांशिकता के कारण भी हृदय से संबन्धित रोग हो जाते हैं क्योंकि ऐसे व्यक्तियों में पीढ़ी दर पीढ़ी गलत तरीके का खान-पान चलता रहता है और स्वास्थ्य संबन्धी गलतियां होती रहती हैं।
हृदय से संबन्धित रोगों का प्राकृतिक चिकित्सा से उपचार:-
- हृदय से संबन्धित रोगों को ठीक करने के लिए सबसे पहले रोगी व्यक्ति को कुछ दिनों तक लगातार भोजन में हरी पत्तेदार सब्जियां तथा रेशेदार सब्जियों तथा अंकुरित अन्न का उपयोग करके उपवास रखना चाहिए।
- हृदय से संबन्धित रोगों से पीड़ित रोगी को नारियल का पानी तथा फलों का रस (अनार, आंवला, प्याज, लहसुन, घिया तथा नींबू का रस) पीकर कुछ दिनों तक उपवास रखना चाहिए।
- इन रोगों से पीड़ित रोगी को आंवला, प्याज, लहसुन, सलाद, आम तथा अंगूर का सेवन अधिक करना चाहिए जिसके फलस्वरूप हृदय के बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- हृदय से संबन्धित रोगों से पीड़ित रोगी को नींबू का रस तथा शहद को पानी में मिलाकर पीना चाहिए जिससे रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है।
- अंगूर तथा आम का सेवन हृदय से संबन्धित रोगों को ठीक करने के लिए टॉनिक का काम करता है इसलिए रोगी व्यक्ति को इनका सेवन अधिक करना चाहिए।
- चोकर समेत आटे की रोटी का सेवन करने तथा अंकुरित अन्न का सेवन करने से शरीर में विटामिन `बी´ कोलेस्ट्रोल को संयमित रहता है जिसके फलस्वरूप हृदय से संबन्धित रोग ठीक हो जाते हैं।
- नींबू तथा आंवले में विटामिन `सी´ कोलेस्ट्रोल को बाईल साल्ट में परिवर्तित करने का गुण होता है जिसके फलस्वरूप हृदय से संबन्धित बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं इसलिए रोगी व्यक्ति को इसका सेवन प्रतिदिन करना चाहिए।
- हृदय से संबन्धित रोगों को ठीक करने के लिए तिलों को दूध में डालकर प्रतिदिन पीना चाहिए। तिलों को दूध में डालकर पीने से शरीर में कैल्शियम की पूर्ति होती है।
- मेथी तथा काले चनों को रात के समय पानी में भिगो लें और सुबह के समय में इस पानी को पी लें तथा काले चनों को खा जाएं। इससे रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है तथा हृदय के बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- बराबर मात्रा में लौकी का रस तथा पानी लेकर उसमें 7-8 तुलसी की पत्तियां और पुदीने की पत्तियां डालकर और फिर इसमें कालीमिर्च डालकर दिन में 3-4 बार सेवन करने से हृदय से संबन्धित रोग ठीक हो जाते हैं।
- हृदय से संबन्धित रोगों को ठीक करने के लिए रोगी को 20 दिनों तक सुबह तथा शाम के समय पान, अदरक, लहसुन के 1 चम्मच रस में 1 चम्मच शहद मिलाकर सेवन करना चाहिए, जिसके फलस्वरूप रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ मिलता है।
- हृदय से संबन्धित रोगों से पीड़ित रोगी को चिंता, हड़बड़ी, दूषित भोजन, मिर्च-मसाले, अचार तथा तली-भुनी चीजों को छोड़ देना चाहिए क्योंकि इनके सेवन से इस रोग की अवस्था और बिगड़ सकती है।
- इन रोगों से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन खुली हवा में एक घण्टे तक टहलना चाहिए।
- हृदय से संबन्धित रोगों को ठीक करने के लिए कई प्रकार के आसन तथा योगक्रियाएं हैं जिनको प्रतिदिन करने से रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है।
- ये आसन तथा योगक्रियाएं इस प्रकार हैं- वज्रासन, पदमासन, कटिचक्रासन, सिद्धासन, गोमुखासन, ताड़ासन, भुजंगासन, कोणासन, नौकासन, श्वास-प्रश्वास की क्रिया तथा हृदयमुद्रा आसन आदि।
- हृदय से संबन्धित रोगों को ठीक करने के लिए रोगी के पेट पर प्रतिदिन मिट्टी की पट्टी करनी चाहिए तथा इसके बाद नींबू का रस पानी में मिलाकर उससे एनिमा क्रिया करानी चाहिए और फिर 2 बार छाती पर गीला कपड़ा लपेटना चाहिए। इसके बाद रोगी व्यक्ति को ठंडे पानी से घर्षण स्नान करना चाहिए और फिर जब धड़कन तेज हो जाए उस समय 3-4 बार मोटे कपड़े की पट्टी ठंडे पानी में भिगोकर दिल पर रखनी चाहिए। इस प्रकार से कुछ दिनों तक लगातार उपचार करने से हृदय से संबन्धित रोग ठीक हो जाते हैं।
- यदि रोगी व्यक्ति को खांसी, कफ की शिकायत हो तो उसे गर्मपाद स्नान (गर्म पानी से पैरों को धो कर स्नान करना) कराना चाहिए। इसके बाद रोगी को आराम कराना चाहिए। इसके फलस्वरूप रोगी व्यक्ति को बहुत अधिक लाभ मिलता है।
- अर्जुन की छाल को रात में पानी में भिगों दें और सुबह के समय में इस पानी को पी लें। ऐसा प्रतिदिन करने से हृदय से संबन्धित रोग ठीक हो जाते हैं।
- विजयसार की लकड़ी को रात में पानी में भिगों दें और सुबह के समय में इस पानी को पी लें। ऐसा प्रतिदिन करने से हृदय से संबन्धित रोग ठीक हो जाते हैं।
- पीपल के पत्तों को आगे-पीछे से काटकर उसको पानी में उबालकर सूप बना लें और इसका दिन में 3 बार सेवन करें। इसका सेवन प्रतिदिन करने से हृदय से संबन्धित रोग ठीक हो जाते हैं।
- यदि रोगी व्यक्ति को हार्ट अटैक आ गया हो तो उस समय उसकी स्थिति बड़ी गंभीर तथा नाजुक हो जाती है तथा रोगी के समक्ष जीवन-मृत्यु का प्रश्न आ खड़ा होता है। ऐसी दशा में रोगी को अधिक से अधिक आराम कराना चाहिए और उसके मानसिक कारणों को दूर कर देना चाहिए। रोगी व्यक्ति को किसी सुरक्षित स्थान पर लिटाना चाहिए तथा रोगी के पहने हुए कपड़ों को उतार देना चाहिए तथा रोगी के सामने ऐसी कोई भी चेष्टा नहीं करनी चाहिए जिससे रोगी की उत्तेजना बढ़ने की आंशका हो। जब तक रोगी को दिल का दौरा पड़ना बंद नहीं हो जाए तब तक उसे उपवास रखना चाहिए। यदि रोगी बहुत अधिक कमजोर हो गया हो तो ऐसी अवस्था में उसे आवश्यकतानुसार अंगूर, संतरे, अनार तथा कागजी नींबू का रस पीने के लिए देना चाहिए। उपवास के दिनों में रोगी को प्रतिदिन गुनगुने पानी से एनिमा क्रिया करानी चाहिए ताकि उसका पेट साफ हो सके। उपवास की समाप्ति पर रोगी को कुछ दिनों तक फलों के रस तथा उसके बाद फल और दूध पर रखना चाहिए। रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन 2 बार कम से कम 15 मिनट तक धीरे-धीरे बढ़ाकर 1 घण्टे तक हृदय पर बदल-बदल कर कपड़े की ठंडी पट्टी रखनी चाहिए और अंत में उस स्थान को रूई अथवा अन्य किसी सूखे हुए साफ कपड़े से रगड़कर लाल कर देना चाहिए। यदि रोगी व्यक्ति को सांस लेने में परेशानी हो रही हो तो आंतों को गर्म करने के लिए उन पर ऊनी पट्टी या अन्य कोई गर्म कपड़ा लपेट देना चाहिए तथा इसके साथ-साथ हृदय पर ठंडे पानी से भीगे कपड़े की एक पट्टी अलग से रखकर पूरी छाती पर 1 घण्टे के लिए छाती की भीगी पट्टी लगानी चाहिए। इस प्रयोग को प्रत्येक 20 से 25 मिनट के अंतराल से करना चाहिए तथा प्रत्येक बार जब छाती की पट्टी हटाई जाए तो उस स्थान को सूखे कपड़े से रगड़-रगड़ कर लाल कर देना चाहिए। यदि रोगी को अधिक घबराहट हो तो पट्टी को साधारण ठंडे पानी में तर करने के स्थान पर बर्फ के पानी में तर करके और निचोड़ करके प्रयोग में लाना चाहिए।
- यदि रोगी बैठ रहा हो और उसकी धड़कन बंद होने वाली हो तो उसकी रीढ़ की हड्डी पर गर्म-ठंडी सिंकाई करनी चाहिए और बीच-बीच में स्पंज बाथ या गर्म पानी में भिगोए हुए कपड़े को निचोड़कर, हृदय को तब तक सेंकना चाहिए, जब तक कि हृदय की धड़कन अपनी स्वाभाविक अवस्था में न आ जाए। रोगी व्यक्ति से मेहनस्नान कराना चाहिए क्योंकि यह स्नान करने से उसे बहुत अधिक लाभ मिलता है। इसके बाद लाल रंग की बोतल के सूर्यतप्त जल अथवा तेल की रोगी के हृदय पर मालिश और पीली बोतल के सूर्यतप्त जल को 25 मिलीलीटर की मात्रा में प्रतिदिन कम से कम 8 बार पिलाना चाहिए। इस प्रकार से कुछ दिनों तक उपचार करने से हार्ट अटैक (दिल का दौरा) होना बंद हो जाता है।
- हृदय में दर्द होने पर रोगी को कम से कम 5 मिनट तक गर्म पानी से स्नान करना चाहिए तथा गर्म पानी में साफ कपड़े को भिगोकर उससे हृदय के पास पट्टी करनी चाहिए और इस क्रिया को 4-5 बार दोहराना चाहिए। इसके बाद गर्म पानी से अपने पैरों को धोना चाहिए और आधे घण्टे के बाद हाथों और पैरों पर गर्म कपड़ा लपेटकर उन्हें गर्म करना चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से हृदय में दर्द होना बंद हो जाता है।
- यदि हृदय की धड़कन बढ़ गई हो तो रोगी को अपने हृदय पर आधे-आधे घण्टे के बाद 20-20 मिनट के लिए ठंडी पट्टी करनी चाहिए। पट्टी को हृदय पर तथा पूरी दाहिनी पंजरी पर लगानी चाहिए। इससे हृदय की धड़कन सामान्य हो जाती है।
- हृदय की धड़कन बढ़ने पर रोगी को अपने हृदय पर नीला प्रकाश डालना चाहिए तथा गहरी नीली बोतल में से सूर्यतप्त जल को 25 मिलीलीटर की मात्रा में 4 बार सेवन करना चाहिए। इससे हृदय की धड़कन सामान्य हो जाती है।
- हृदय की धड़कन तेज होने पर पीड़ित रोगी को प्रतिदिन सुबह के समय में शौच क्रिया करने के बाद एक मुट्ठी काली तुलसी और हरी तुलसी के पत्तें चबाकर पानी पी लेना चाहिए तथा इसके बाद रोगी को कुछ नहीं खाना चाहिए।
- हृदय की धड़कन तेज होने की स्थिति में रोगी को चाहिए कि खालिश तांबे का एक गोल सिक्का या कोई तांबे का गोल टुकड़ा लेकर, उसे रेत आदि से रगड़कर साफ कर लें। फिर उसके सिरे में सुराख करके उसे नीले रेशमी धागे में पिरों लें, लेकिन धागा इतना लम्बा होना चाहिए कि उसे गला में पहना जा सके। फिर इसको गले में पहन लें। इससे हृदय की तेज धड़कन सामान्य हो जाती है।
- यदि किसी व्यक्ति को हृदय रोग होने के साथ-साथ पेट में दर्द या कोई परेशानी हो तो उसे प्रतिदिन एनिमा क्रिया करके अपने पेट को साफ करना चाहिए।
- यदि रोगी को हृदय रोग के साथ बुखार भी हो तो उसे अपने पेड़ू पर मिट्टी की पट्टी करनी चाहिए तथा दिन में कई बार कटिस्नान करना चाहिए।
- यदि हृदय रोग से पीड़ित रोगी के शरीर पर सूजन आ गई हो तो उसे अपने पूरे शरीर पर गीली चादर की लपेट लेकर तथा ऊनी कम्बलों में लपेटकर 3-4 घण्टों तक रखना चाहिए तथा शरीर पर धूपस्नान देकर पसीना निकाल देना चाहिए। पसीना निकालने वाले इन प्रयोगों के बाद रोगी को तौलिया स्नान करना चाहिए। इसके बाद कटिस्नान या मेहनस्नान करने से रोगी का रोग ठीक हो जाता है।
- हृदय के रोग से पीड़ित रोगी को दौरा न होने के समय में कुछ दिनों तक फलों का रस पीकर उपवास रखना चाहिए। इसके बाद दिन में कम से कम 2 बार गुनगुने पानी से एनिमा लेकर पेट को साफ करना चाहिए। इसके बाद 15 दिनों तक फलाहर या फल-दूध पर रहकर दिन में 2 बार घर्षण स्नान करना चाहिए। इसके बाद साधारण स्नान करना चाहिए। फिर शरीर की मालिश करनी चाहिए। फिर रोगी को कटिस्नान करना चाहिए तथा इसके बाद अपने पैरों को गर्म पानी से धोना चाहिए। रोगी व्यक्ति को पेट ठीक करने के लिए रात के समय में अपनी कमर पर भीगी पट्टी भी लगानी चाहिए। रोगी व्यक्ति को सप्ताह में कम से कम 1 बार अपने शरीर पर एक घण्टे के लिए भीगी चादर लपेटनी चाहिए तथा जिन कारणों से हृदय रोग हुआ हो उन कारणों को दूर करना चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से रोगी व्यक्ति पूरी तरह से ठीक हो जाता है।
- जलनेति कुंजल तथा शवासन क्रिया करने से हृदय के बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- रीढ की हड्डी तथा सिर पर 5-10 मिनट तक मालिश करने से उच्च रक्तचाप सामान्य हो जाता है तथा हृदय के बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- शुद्ध शहद तथा नींबू के रस को ठंडे पानी में मिलाकर प्रतिदिन दिन में 3-4 बार पीने से रोगी को बहुत अधिक लाभ मिलता है। इसके फलस्वरूप हृदय रोग जल्द ही ठीक होने लगता है।
- हृदय रोग से पीड़ित रोगी को नमक का सेवन नहीं करना चाहिए क्योंकि इसका सेवन करने से रोगी की स्थिति और भी गंभीर हो सकती है।
- उच्च रक्तचाप रोग से पीड़ित रोगी को सबसे पहले रोग होने के कारण को दूर करना चाहिए तथा भोजन संबन्धी नियमों का पालन करना चाहिए जैसे- भोजन के समय पानी न पीना, भोजन करने के 2 घण्टे बाद खूब पानी पीना, भोजन चबा-चबाकर करना, भोजन करने के बाद मूत्रत्याग करना तथा कम से कम 50 कदम टहलना तथा इसके बाद थोड़ा टहलना, उषापान करना, नींबू के रस को पानी में मिलाकर पीना, शाम का खाना सूर्यास्त से पूर्व खा लेना, भूख न होने पर खाना न खाना, सुबह के समय सूर्योदय से पूर्व ही बिस्तर से उठ जाना, दिन में न सोना, सोते समय मुंह को न ढकना, शांत और प्रसन्नचित्त रहना, नींद अच्छी लेना, अधिक खाना न खाना तथा कब्ज न होने देना आदि स्वास्थ्य के नियमों का पालन करना आदि। इस प्रकार से उपचार करने से बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- रक्तचाप से संबन्धित रोग से पीड़ित रोगी को औषधियों का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि यह उनके लिए अधिक हानिकारक हो सकता है।
- उच्च रक्तचाप से पीड़ित रोगी को फलों का रस पीकर उपवास रखना चाहिए।
- रोगी को सूर्य नमस्कार, योगमुद्रा, पश्चिमोत्तानासन, हलासन तथा सर्वांगसन क्रियाएं प्रतिदिन करनी चाहिए जिसके फलस्वरूप उच्च रक्तचाप सामान्य हो जाता है।
- उच्च रक्तचाप से पीड़ित रोगी को रूद्राक्ष अच्छी तरह से धोकर रात को एक गिलास पीने के पानी में डालकर ढक लेना चाहिए। फिर सुबह के समय में रूद्राक्ष निकालकर इस पानी को पी लेना चाहिए। इसके बाद एक गिलास पानी में रूद्राक्ष डालें व शाम को वह पानी पी लें। इस प्रकार प्रतिदिन यह पानी दिन में 2 बार पीने से उच्च रक्तचाप सामान्य हो जाता है तथा हृदय से संबन्धित और भी रोग ठीक हो जाते हैं।
- उच्च रक्तचाप से पीड़ित रोगी को प्रतिदिन सुबह के समय में लहसुन की 3-4 कलियां खानी चाहिए।
- रोजाना केले के तने का रस पीने से उच्च रक्तचाप का रोग तथा हृदय के और भी कई रोग ठीक हो जाते हैं।
- बेलपत्र का रस 100 मिलीलीटर की मात्रा में प्रतिदिन 3 बार पीने से उच्च रक्तचाप का रोग तथा हृदय के और भी कई रोग ठीक हो जाते हैं।
- हृदय के रोग तथा उच्च रक्तचाप के रोग का उपचार करने के लिए रोगी को कुछ दिनों तक फलों का रस (गाजर का रस, केले के तने का रस, चुकन्दर का रस, बथुए का रस, धनिया-पालक का रस, खीरे का रस, नारियल पानी, नींबू का रस पानी में डालकर, घिये का रस तथा गेहूं के ज्वारे का रस) पीना चाहिए तथा कुछ दिनों तक बिना पका हुआ भोजन करना चाहिए। इससे हृदय के बहुत से रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाते हैं।
- हृदय के रोग से पीड़ित रोगी को चोकर समेत आटे की रोटी तथा सब्जियां खानी चाहिए।
- तुलसी के पत्तों को कालीमिर्च के साथ प्रतिदिन खाने से उच्च रक्तचाप सामान्य हो जाता है जिसके फलस्वरूप हृदय के बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- प्रतिदिन सुबह के समय में खाली पेट तुलसी के पत्तों को शहद के साथ सेवन करने से भी उच्च रक्तचाप सामान्य हो जाता है और हृदय के बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- प्रतिदिन सुबह के समय नींबू का रस तथा 1 चम्मच शहद पानी में मिलाकर पीना बहुत ही लाभकारी होता है। इसके फलस्वरूप उच्च रक्तचाप सामान्य हो जाता है तथा हृदय के बहुत से रोग भी ठीक हो जाते हैं।
- रात को सोते समय तांबे के बर्तन में पानी रख दें। सुबह के समय में इस पानी को पीने से रक्तचाप सामान्य हो जाता है और हृदय के बहुत से रोग ठीक हो जाते हैं।
- रोजाना 2 चम्मच ताजे आंवले का रस सुबह तथा शाम के समय पीने से हृदय के रोग ठीक हो जाते हैं।
- हृदय के रोग तथा उच्च रक्तचाप के रोगों को ठीक करने के लिए रोगी व्यक्ति को प्रतिदिन ठंडे पानी से एनिमा क्रिया करके अपने पेट को साफ करना चाहिए तथा पेट पर मिट्टी की पट्टी करनी चाहिए और फिर गर्म ठंडा सेंक करना चाहिए। इसके बाद गर्म पाद स्नान, रीढ़ स्नान, कटि स्नान, मेहनस्नान तथा सप्ताह में 1 दिन शरीर पर गीली चादर लपेटनी चाहिए और स्नान से पहले और बाद में शरीर को रगड़ना चाहिए। इस प्रकार से उपचार करने से यह रोग जल्दी ही ठीक हो जाता है।
- हृदय के रोगों तथा उच्च रक्तचाप को ठीक करने के लिए कई प्रकार के आसन हैं जिनको करने से यह रोग कुछ ही दिनों में ठीक हो जाता है जैसे- गोमुखासन, शवासन, अर्धमत्स्येन्द्रासन, वज्रासन, पद्मासन, सिद्धासन, ताड़ासन, नाड़ीशोधन, शीतकारी तथा शीतली प्राणायाम बिना कुम्भक करें आदि।
- यदि हृदय रोग से पीड़ित रोगी को नींद न आती हो तो उसे सोने से पहले 15 मिनट तक ठंडे पानी से अपने सिर को धोना चाहिए तथा निचोड़ा हुआ कपड़ा अपने सिर पर रखकर अपने पैरों को गर्म पानी से धोना चाहिए। इससे रोगी को अच्छी नींद आ जाती है।