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योग का इतिहास

परिचय-

          योग के बारे में पूर्ण जानकारी प्राप्त करने की दिशा में खोज करते हुए एक शताब्दी से अधिक समय हो गया है, फिर भी कोई योग की उत्पत्ति का सही समय नहीं जान पाया है। भारतीय योग जानकारों के अनुसार योग की उत्पत्ति भारत में लगभग 5000 वर्ष से भी अधिक समय पहले हुई थी। परन्तु कुछ भारतीय विद्धानों का मानना था कि योग की उत्पत्ति लगभग 2500 वर्ष पहले हुई थी। और यह समय भारत में गौतम बुद्ध अर्थात बौद्ध धर्म के संस्थापक का समय काल माना गया है। योग की सबसे आश्चर्यजनक खोज 1920 के शुरूआत में हुई। 1920 में पुरातत्व वैज्ञानिकों ने तथाकथित सिंधु सरस्वती सभ्यता को खोज कर संसार को आश्चर्य में डाल दिया। यह दुनिया की ऐसी संस्कृति थी जो लगभग 300000 वर्ग मील से अधिक क्षेत्र में फैली हुई थी। फिर भी इस संस्कृति का ज्ञान लोगों को इतने दिनों बाद हुआ।

          वास्तव में यह सभ्यता पुरातन युग की सबसे बड़ी सभ्यता थी। मोहनजोदड़ों और हड़प्पा के बड़े नगरों के भवनों का निर्माण करने वालों ने पाया कि मुद्राओं पर अंकित आकृतियां योगी की आकृति से मेल खाती हैं। उन खोजों से मिलने वाले अनेक अन्य प्राप्त वस्तुओं से पता चलता है कि उक्त सभ्यता, परवर्ती हिन्दु समाज और संस्कृति में  आश्चर्यजनक अविच्छिन्नता (Continuty) है। इससे सिद्ध होता है कि योग एक परिपक्व सभ्यता का उत्पाद है जिसका संसार में कोई भी सानी या मेल नहीं है।

योग और सिंधु सरस्वती सभ्यता-

          एक योगाभ्यासी होने के कारण आप प्राचीन और सम्माननीय परम्परा की धारा का हिस्सा हैं, जो सभ्यता का उत्तराधिकारी बनाती है। उन खोजों का श्रेय सुमेर को दिया जाता है और यह उचित भी है। वही आज सिंधु सरस्वती सभ्यता नाम से जानी जाती है। इस सभ्यता का उद्भव सांस्कृतिक परम्परा से है जिसका समय आज से 2700 से 3000 वर्ष पहले माना जाता है। बदले में उसके एक महान धार्मिक और सांस्कृतिक परम्परा को जन्म दिया, जिससे हम हिन्दुवाद के नाम से जानते हैं तथा परोक्ष रूप से बौद्ध और जैन धर्म की भी उत्पत्ति हुई है। विश्व भर में मौजूद सभी सभ्यताओं से भारतीय सभ्यता सबसे पुरानी है। आज अपनी समस्याओं के कारण हमें अपने सभ्यता और संस्कृति के गौरवशाली भूतकाल तथा इससे प्राप्त होने वाली शिक्षा को नहीं भूलना चाहिए। जीवन के विषय में जो अभ्यास लम्बे समय से किए गए हैं, उनसे योगाभ्यासियों को विशेष रूप से लाभ उठाना चाहिए। विशेषकर मन के रहस्यों से संबंधित जो खोज की गई है, उनसे लाभ उठाना चाहिए। भारतीय सभ्यता ने महान दार्शनिक और आध्यात्मिक विभूतियां पैदा की है। उन्होंने उन सभी गूढ़ प्रश्नों के उत्तर दिए है, जो कि आज भी उतने ही महत्वपूर्ण है जितने वे हजारों वर्ष पहले थे।

          योग के इतिहास को मुख्य 4 भागों में बांटा गया है-

1. वैदिक योग

2. पूर्ववर्ती प्राचीन योग

3. प्राचीन योग

4. परवर्ती प्राचीन योग

वैदिक योग-

          उक्त श्रेणी विभाजन स्थिर चितों के समान है, जो वास्तव में निरंतर गतिशील है। यही ´इतिहास की गति´ है।

          ऋग्वेद और तीन प्राचीन ग्रंथों में पाई जाने वाली यौगिक शिक्षाएं वैदिक योगों के नाम से जानी जाती है। संस्कृति में ´वेद´ का अर्थ ´ज्ञान´ है, जबकि संस्कृत शब्द ऋग का अर्थ है ´प्रशंसा´।  इस प्रकार ´ऋगवेद´ प्रशंसा गीतों का एक समूह है, जिसमें उच्चारण शक्ति की प्रशंसा में प्रशस्ति गीत हैं। वास्तव में संग्रह ही हिन्दु धर्म का मुख्य केन्द्र है, जिसे लगभग एक अरब से अधिक लोग मानते आऐ हैं। इस युग में अन्य तीन वेदों के ग्रंथ भी उदय हुए-

1. यजुर्वेद (यज्ञ ज्ञान)- यजुर्वेद में उन यज्ञ सूत्रों के बारे में बताया गया है जिनका प्रयोग वैदिक पण्डित इस्तेमाल करते थे।

2. सामवेद (भजन ज्ञान)- द्वितीय वेद में यज्ञों के समय पढ़े जाने वाले भजन है जिनके उच्चारण से देवता आदि प्रसन्न होते थे।

3. अथर्ववेद (अथर्वन का ज्ञान)- तृतीय वेद में रहस्यमय जादू-टोने समाविष्ट हैं तथा इसका प्रयोग किसी भी समय किया जा सकता है। इसमें कई शक्तिशाली दार्शनिक मंत्र भी है जिसका संबंध अथर्वन से है, जो एक प्रसिद्ध याज्ञिक पंडित थे और जिन्हें ऐन्द्रजालिक कर्मकांड का सिऋहस्त होने के कारण याद किया जाता है।

         अब तक दिए गए उदाहरणों से स्पष्ट होता है कि वैदिक योग को पुरातन योग के नाम से भी पुकारा जा सकता है क्योंकि प्राचीन भारतीयों के कर्मकांडी जीवन से इनका घनिष्ट संबंध है। इसकी मूल धारण का उद्देश्य था, यज्ञ के साधना से इस लोक तथा अदृश्य आत्मा के संसार को परस्पर जोड़ना तथा श्रम साध्य कर्मकांड करने के लिए यज्ञकर्ताओं द्वारा अपने मन को लम्बे समय तक केन्द्रियभूत करना। इस तरह अपने मन को अपने अन्दर ही केन्द्रित करना योग का मुख्य आधार है।

          इन तीनों वेदों को ज्ञान प्राप्त करने के बाद ही, उसे वैदिक काल के योगी को ´दृष्टि´ प्राप्त होती थी जिससे वे आने वाले समय की परिस्थिति के बारे में अनुभव कर लेते थे और उन्हें जीवन का सत्यता का अनुभूति प्राप्त होती थी। वे वैदिक योग का महान् आचार्य हो जाने पर उसे ´भविष्यवक्ता´ (भविष्य बताने वाले) कहा जाता था। वैदिक युग के ऋषि-मुनि जीवन और परमात्मा के अस्तित्व को देखने की योग्यता रखते थे। उनके भजनों से उनकी अद्भुत शक्ति का ज्ञान होता है, जो हमें आज भी आश्चर्य में डाल देते हैं।

पूर्ववर्ती प्राचीन योग-

          इस योग के इतिहास में द्वितीय शताब्दी का समय लगभग 2000 वर्ष  लम्बा माना गया है जो पूर्ववर्ती प्राचीन योग के अनेक रूपों और वेशों में प्रकट होता है। इसके प्राचीन उद्घाटनों का सीधा संबंध वैदिक यज्ञीय संस्कृति से था। इसका विकास ´ब्राह्मण´ और ´आरण्यक´ के रूप में हुआ था। ´ब्राह्मण´ संस्कृत के ग्रंथ हैं, जिसका संबंध वैदिक स्रोत्रों और कर्मकांड से है। ´आरण्यक´ वे ग्रंथ हैं, जिसका संबंध विशेषकर उन लोगों से है जो जंगल के आश्रम में एकाकी जीवन व्यतीत करते थे।

          वास्तव में योग का वास्तविक रूप ´उपनिषदों´ के समय ही उत्पन्न हुआ था। उपनिषद वे ग्रंथ हैं जिनमें गुह्य पदार्थो के अत्यंत एकाकीकरण का सिद्वांत प्रतिपादित किया गया है। इस तरह के 200 से भी अधिक धर्म ग्रंथ हैं, हालांकि उनमें से एक का ही निर्माण गौतम बुद्ध के समय में हुआ था। इनमें से सबसे बड़ा योग ग्रंथ ´श्रीमद्भगवद् गीता´ है। ´श्रीमद्भागवत गीता´ के बारे में महान समाज सुधारक महात्मा गांधी ने कहा था-

          जब मैं उलझन में पड़ता हूं या मैं अपने काम को न कर पाने के कारण निराश होता हूं और मुझे आशा की कोई किरण दिखाई नहीं देती, तो मैं ´श्रीमदभागवत गीता´ को पढ़ता हूं। इसके अन्दर कोई न कोई ऐसे ‘श्लोक मिल जाते हैं जिससे मेरी शक्तिहीनता या निराशा दूर हो जाती है। यही मेरे जीवन को सफल बनाने में मेरी सहायता करती है। मेरा जीवन हमेशा बाह्य विपत्तियों से ग्रसित रहा है और यदि इन विपत्तियों और परेशानियों का कोई प्रत्यक्ष और गहरा प्रभाव मुझ पर नहीं पडता़ तो इसका कारण ´भागवत गीता´ के द्वारा मिलने वाली प्रेरणा व शिक्षा ही है।´´

          भागवत गीता´ में 700 श्लोक लिखे गये हैं। गीता में लिखे यह श्लोक मानव समाज को संदेश देते हैं कि संसार से बुराई को खत्म करना चाहिए। गीता के अनुसार धर्म रक्षा और समाज कल्याण के लिए बुराई का नाश करना आवश्यक है, चाहें बुराई या अधर्म के मार्ग पर चलने वाले आप के सगे-संबंधी ही क्यों न हो। बुराई के सामने झुकना या उसकी अधिनता स्वीकार करना भगवान की नज़र में सबसे बड़ा अधर्म है और ऐसे व्यक्ति को ´भागवत गीता´ में कायर कहते हैं। अपने वर्तमान रूप में उपलब्ध ´भागवत गीता´ की रचना लगभग 5000 वर्ष पहले हुई थी। ´भागवत गीता´ अपने उत्पत्ति से लेकर आज तक लोगों के जीवन में प्रेरणा देने वाली बनी हुई है। इसका मूल इस बातों पर केन्द्रित है कि जीवित रहने के लिए साधना भी ठीक होनी चाहिए। हमे अपने और दूसरों के लिए कठिनाइयां पैदा नहीं करना चाहिए और यदि हम अस्तिवता की पकड़ से आगे जाना चाहते हैं तो हमारे कर्म भी नम्र होने चाहिए। यह वास्तव में कितना आसान लगता है, परन्तु इसे जीवन में प्राप्त करना बहुत कठिन है।

          पूर्ववर्ती प्राचीन योग अनेक विचार-धाराओं का मिश्रण है और इसकी पुष्टि भारत के दो महान धार्मिक ग्रंथों में पायी जाती है- ´रामायण´ और ´महाभारत´। इन दोनों ग्रंथों में ही ´भागवत गीता´समाहित है। इस प्रकार से अनेक योगियों ने गहन ध्यान द्वारा शरीर और मन की खोज की और शरीर व मन के नैसर्गिक सत्यता के बारे में गहन ज्ञान प्राप्त किया।

प्राचीन योग-

          प्राचीन योग को अष्टांग योग या राजयोग के नाम से भी जाना जाता है। प्राचीन योग का वर्णन अपने योग सूत्र में महर्षि पतंजलि ने सारगर्भित रूप से वर्णन किया है। संस्कृत के इस योग ग्रंथ में 195 सूत्र हैं, जिन पर सदियों से बार-बार टिप्पणियां की जा रही है। योग के गम्भीर अभ्यासियों को योग की कला की खोज करनी है और इसके कठोर कथनों से आमना-सामना करना है। ´सूत´ का अर्थ ´धागा´ होता है। यहां इसका अभिप्राय स्मृति सूत से है। यह उन व्यक्ति के स्मृति के लिए है जो पतंजलि के ज्ञान और बुद्धिमत्ता को जानने के बाद आत्मासात करने के इच्छुक है।

          योग सूत्र लगभग 500 वर्ष पहले लिखा गया था। इसकी सबसे पुरानी संस्कृति टीका ´योग भाष्य´ (योग की भाशा) का संबंध व्यास से जोड़ा जाता है। सम्भव हो यह 1500 वर्ष पहले लिखी गई है। इसमें पतंजलि के रहस्यमय कथनों के विषय में मुख्य रूप से स्पष्ट किया गया है।

          कुछ किंवदंतियों के अतिरिक्त पतंजलि या व्यास के विषय में किसी को कुछ ज्ञान नहीं हैं। वैसे यह समस्या अधिकांश योग विशेषज्ञों और अनेक वर्तमान व्यक्तियों के बारे में भी है। अब हमारे पास जो भी ज्ञान है वे इन लोगों के द्वारा दिया गया ज्ञान है। यह किसी साहित्यिक सूचना से अधिक महत्वपूर्ण है जिससे हम उनकी व्यक्तिगत जीवन के बारे में जान सकते हैं।

          वैसे तो ´पतंजलि´ को योगा का जनक (पिता) कहा गया है। उनका विश्वास है कि व्यक्ति प्रकृति और आत्मा का संयुक्त रूप है। उन्हें यौगिक प्रक्रिया का ज्ञान था, जिसके द्वारा वे प्रकृति और आत्मा दोनों तत्वों में पथैक्य लाएं, जिससे आत्मा अपनी सर्वाग शुद्धता में दुबारा स्थापित हो सके। उनके सिद्धांत को रहस्यात्मक द्वैतवाद का नाम दिया गया है। यह एक महत्वपूर्ण बातें हैं, क्योंकि भारत के अधिकांश रहस्यवादि मत किसी न किसी प्रकार के ´अद्वैतवाद´ के पक्षधार है। इस संसार के असंख्य पक्ष और रूप उसी वस्तु के अंतिम विश्लेषण में है अर्थात शुद्ध रूप से आकारहीन परन्तु सचेत सत्ता।

परवर्ती प्राचीन योग-

          परवर्ती प्राचीन योग एक विस्तृत योग है जो अनेक प्रकारों और विचारधाराओं की ओर संकेत करता है। परवर्ती प्राचीन योग महर्षि पतंजलि के ´योग सूत्र´ के समय के बाद उद्भव हुआ है और मूलकृति से भिन्न है। ये प्राचीन योग से भिन्न हैं। इसका कारण यह है कि परवर्ती प्राचीन योग सभी योग की अंतिम एकता की पुष्टि करता है। यही वेदान्त की मूल शिक्षा है। यह दार्शनिक पद्धति उपनिषदों पर आधारित है।

          एक प्रकार से प्राचीन योग का द्वैतवाद एक संक्षिप्त परन्तु सशक्त अंतराल है और अद्वैतवाद शिक्षाओं की धारा में इसका संबंध प्राचीन वैदिक समय से है। इन शिक्षाओं के अनुसार सभी व्यक्ति तथा वस्तु उसी सत्य का पक्ष एवं मार्गिक है। संस्कृत में एक यही सत्य है जो ´ब्रह्म´ और ´आत्मा´ से भिन्न है।

          कई सदियों बाद योग के विकास की ओर खोज करने के क्रम में एक मोड़ आया है। योग के कुछ महान विशेषज्ञों ने शरीर की शक्ति के बारे में खोज शुरू की है। इससे पहले योग और योग के खोजकर्त्ता शरीर की शक्तिओं की ओर कोई ध्यान नहीं देते थे। उनकी इस बात में दिलचस्पी थी कि वे सचेत रूप से शरीर को कैसे छोड़ सकते हैं। उन लोगों का उद्देश्य यही था कि संसार पीछे छोड़ जाएं और आकारहीन सत्य से कैसे एकीकरण हुआ जाए।

          रसायन विद्या के प्रभाव से जो रसायन शास्त्र की आत्मिक उत्पत्ति हुई है, उससे नई पीढ़ी के योगाचायों ने अभ्यासों की एक ऐसी प्रक्रिया का विधान किया जिससे शरीर को ऊर्जा  और जीवन को लम्बी आयु प्राप्त हो सके। वे शरीर को अमर आत्मा का एक मंदिर मानते थे, न कि ऐसा आधान जिसे कभी भी त्यागा जा सकता है। उन्होंने उन्नत यौगिक विधियों द्वारा इसे ज्ञात करने का कठोर प्रयत्न किया, जिससे भौतिक शरीर का जीव रसायन शास्त्र। शरीर विज्ञान को बदला जा सके और इसके आधारभूत तत्व को इस प्रकार पुनरायोजित किया जा सके जिससे यह अमर हो जाए।

          इससे हठयोग का मार्ग प्रशस्त हुआ जिसके अनेक रूप का आज विश्वभर में अभ्यास किया जाता है। इसने तंत्र योग की विभिन्न शाखाओं और धारणाओं को भी मान्यता दिया गया है, जो हठयोग की मात्र एक विद्या है।


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